Friday, 29 May 2015

उसके चेहरे की हंसी को कोई भी समझ सकता था
हम निकले नादाँ उसकी आरजू न समझे। 

चार पल की जिंदगी में एक लम्हे का साथ 
बस इतनी सी जिंदगी थे ये जुस्तजू न समझे। 

 मैं कितना  नासमझ ये समझता   आखिर कौन 
न हम ही समझ पाये और न ओ ही समझे। 

मुहब्बत का दरिया डूब जाने की खातिर होता है 
बिछड़ कर हम भी समझे … बिछड़कर ओ भी समझे 

No comments:

Post a Comment